Friday, May 2, 2025

जाति गणना और राहुलों की समस्या

 जाति गणना और राहुलों की समस्या



जब पूरा देश ही नहीं पूरा विश्व जानना चाहता था कि पहलगाम हमले के बाद भारत सरकार की प्रतिक्रिया क्या होगी, कब होगी, कैसी होगी तभी कौतुक प्रिय मोदी सरकार ने घोषणा कर दी कि अगली जनगणना में जाति की गणना भी कराई जायेगी. यह समाचार किसी सर्जिकल स्ट्राइक से कम घातक नहीं रहा. अलग बात है कि घात किस पर हुआ.

मैँ इस विवाद में नहीं पड़ना चाहता कि देश में किस जनगणना तक जाति की गणना होती थी, कब बन्द कर दी गई, या आजाद भारत में जाति गणना क्यों बन्द कर दी गई थी. क्योंकि मैं बहुत साधारण आदमी हूं जिसका ज्ञान बहुत कम है. मैं तो बस इस चिन्ता में हूं कि जाति की परिभाषा क्या होती है ? जाति पितृमूल से आती है या मातृमूल से ? अलग अलग जाति के माँ-बाप से उत्पन्न संतानों की जाति कौन सी होगी ? पिता वाली या माता वाली ? और एक बार यह तय हो जात तो क्या उसको हर पीढ़ी अपने सुविधानुसार बदल सकती है ? धर्म परिवर्तन तो संभव है पर क्या जाति परिवर्तन भी हो सकता है  ? कोई भी अपने को हिन्दू कह सकता है और उसे मान लिया जायेगा क्योंकि हिन्दू होने की कोई शर्त नहीं होती सिवाय उस व्यक्ति की स्वीकृति के. आप किसी भी देवी-देवता को मान सकते हैँ या किसी को भी नहीं. आप आस्तिक हो साकते हैं, नास्तिक हो सकते हैं, शाकाहारी हो सकते हैं, मांसाहारी हो सकते हैं, सर्वाहारी हो सकते हैं. आप की पूजा पद्धति कुछ भी हो सकती है या नहीं भी हो सकती. यह सुविधा दुनिया के किसी भी दूसरे धर्म रिलीजन मजहब में नहीं मिलती. इसी लिये धर्म की परिभाषा रिलीजन और मजहब से परे होती है. रिलीजन या मजहब का समानार्थी शब्द सम्प्रदाय हो सकता है धर्म नहीं. क्योंकि धर्म शाश्वत होता है, संप्रदाय की  तरह किसी एक पुस्तक, एक भगवान, एक पूजा पद्धति से बंधी नहीं होती.

जाति पर चर्चा करने से पहले धर्म की चर्चा करना क्षेपक नहीं था, सोद्देश्य है. किसी भी गिनती के लिये उस किस की परिभाषा जरुरी होती है. जाति की परिभाषा क्या है ?
जाति जन्मना तो बाद में होने लगी पहले यह कर्मणा ही थी. तो भारत की जनगणना में जन्मना वाली जाति मानी जायेगी या कर्मणा वाली. माँ की जाति संतानों की जाति मानी जायेगी या पिता की ? गणना से पहले इस प्रश्न का सर्वमान्य उत्तर परिभाषित करना अति आवश्यक है. यहां मैं उदाहरण के लिये लोकसभा मे नेता प्रतिपक्ष का उदाहरण लेना चाहता हूं. राहुल गाँधी जाति गणना की जितनी वकालत करना चाहें, करे. पर पहले अपनी जाति का निर्धारण तो कर लें. वे अपने को हिन्दू घोषित कर सकते हैं, हों या नहीं यह प्रश्न नहीं उठेगा पर अगर वे अपने आप को जनेऊधारी ब्राह्मण कहें तो हजार सवाल उठेंगे. वे ब्राह्मण कैसे हुये ? क्या कोई भी अपने आप कि किसी भी जाति विशेष का घोषित कर सकता है ? अगर हाँ तो फिर जाति गणना की सारी कवायद बेकार हो जायेगी. राहुल जैसे लोगों की जाति क्या होगी ? और अगर उनकी कोई जाति नहीं होगी तो उनको किस वर्ग में रखा जायेगा ? जाति सिर्फ हिन्दुओं की गिनी जायेगी कि मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, सिक्खों की भी ? शायद जैन, बौद्ध, सिक्खों में भी जाति नहीं होती. पर उन मुसलमानों और ईसाईयों का क्या होगा जो जातिगत आरक्षण का लाभ तो उठाते हैं पर अपने कि मुसलमान या ईसाई भी मानते हैँ. क्या इस्लाम और ईसाईयत में भी जाति प्रथा मौजूद मानी जायेगी ? अगर हाँ तो क्यों ? अगर नहीं तो उनको जातिगत आरक्षण लाभ किस आधार पर दिया जायेगा ?

और बताया जाता है कि पिछली बार जब जाति गणना का प्रयास किया गया था तो देश में चालीस लाख से ज्यादा जातियां मिल गईं थीं जिनको वर्गीकृत करना सहज या संभव ही नहीं था. इसी कारण उस गणना को प्रकाशित नहीं किया गया. इसलिये मैं तो बस यही जानना चाहता हूं कि जाति की परिभाषा क्या होगी ? जन्मना तो मैँ क्षत्रिय हूं पर कर्मणा वैश्य शुद्र ब्राह्मण सब हूं. व्यापार करता हूं सो वैश्य हूं, नौकरी करता था तो शुद्र भी था, चिकित्सा पेशा था तो ब्राह्मण था. पर राहुल जैसे लोगों की जाति क्या होगी, किस आधार पर मानी जायेगी इस प्रश्न का उत्तर खोज रहा हूं. क्या आप इस विषय में चर्चा कर के मेरी कुछ सहायता कर सकते हैं ?

Friday, March 21, 2025

खैर खून खाँसी खुशी बैर प्रीत मधुपान

बेचारे जज को क्या मालूम था कि होली के दिन उनके आवास में लगी आग उनके लिये मुसीबत का पहाड़ बन जाएगी. सोच रहे होंगे कि कितना अच्छा रहता जो सब कुछ जल कर राख हो गया होता. पर जज का आवास और उसमें लगी आग बुझाने के लिये दमकल कर्मी तुरंत पहुँच गये. आग बुझाने के दौरान उन्होने देखा कि नोटो का अम्बार लगा हुआ है. उन लोगों ने आग तो बुझा दी पर अब जो आग लगी है उसे बुझाने में जजों के कॉलेजियम के सामने समस्या खड़ी हो गई है.

रहीम का एक दोहा है -

खैर खून खाँसी खुशी बैर प्रीत मधुपान
रहिमन दाबे ना दबे जाने सकल जहान.

इस दोहा में रहीम कहते हैं कि सारी दुनिया जानती है कि खैर (कत्थे का दाग़), ख़ून, खाँसी, ख़ुशी, दुश्मनी, प्रेम और शराब का नशा; ये चीज़ें ना तो दबाने से दबती हैं और ना छिपाने से छिपती हैं. जज साहब के आवास पर लगी आग ने इस सच्चाई को रेखांकित कर दिया है.

दुनिया में भारत एक मात्र देश है जहाँ के जज खुद ही जज नियुक्त करते हैं, खुद ही उनकी सेवा शर्ते निर्धारित करते हैं, खुद ही पद स्थापन और स्थानान्तरण के खेल भी खेलते है. कहने के लिये तो हर नियुक्ति, पद स्थापन, स्थानान्तरण वगैरह के लिये देश के राष्ट्रपति की स्वीकृति जरुरी होती है पर यह एक नंगी सचाई है कि राष्ट्रपति भवन इन मामलों में सिर्फ विलम्ब कर सकता है, पुनर्विचार के लिये भेज सकता है, पर अन्तोगत्वा होता वही है जो इस देश के स्वंयभू जज चाहते हैं. उनके उपर न तो नैतिकता का कोई बन्धन होता है, न संविधान सम्मत होने की मजबूरी. हमारे देश के जज जो चाहें तय कर सकते हैं. संविधान में जो लिखा है उसकी मनमाफिक व्याख्या कर सकते हैं. जो नहीं लिखा है उसे भी संविधान की मूलभूत संरचना बता सकते हैं. वे चाहें जिस पर सवाल उठा लें पर उन पर सवाल उठाने का अधिकार या स्वतंत्रता किसी को नहीं है.

जब जज के आवास में इतनी बड़ी धनराशि मिली तो स्वाभाविक न्याय कहता है कि वह जज इस नगदी का स्रोत बताए, इसे नगदी के रूप में रखने का कारण बताये. जरा भी लाज हया होती तो ऐसा जज पहले त्यागपत्र दे देता और फिर न्याय पाने का विधि सम्मत तरीका तलाशता. आखिर कॉलेजियम में तो उसी के भाई बन्धु हैं. कोई न कोई तरीका निकाल ही लेंगे. पर किसी जज से ऐसी नैतिकता की उम्मीद रखना व्यर्थ है.

हाँ पर अब विधायिका अपने छीने जा चुके अधिकारों की पुनर्प्राप्ति के लिये प्रयास करने का बहाना पा गयी है. जजों से भी उन्हीं कानूनों के तहत निपटा जाना चाहिये जिन कानूनों के तहत वे आम नागरिकों को निपटाते रहते है.  पर अपने देश की न्यायापालिका से ऐसे न्याय की अपेक्षा रखना भी उनके प्रति अन्याय होगा.

Monday, January 6, 2025

सतसईया के दोहरे अरु नावक के तीर

सतसईया के दोहरे अरु नावक के तीर
देखन में छोटन लगें, घाव करें गंभीर।


यह दोहा सबको याद होगा. आजकल चुनावों में इसी तरह छोटे-छोटे मगर गंभीर असर दिखाने वाले बयानों का जमाना आ गया है. हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के दौरान तीन शब्दों के एक मारक वाक्य ने देश की राजनीतिक दिशा बदल कर रख दी. "बंटेगें तो कटेगें" वाला एक ही नारा चुनाव परिणामों को अप्रत्याशित रुप से प्रभावित कर गया. इसी वाक्य का परिमार्जित रूप "एक हैं तो सेफ हैं" भी प्रभावशाली रहा पर जनमानस पर उसकी पकड़ "बंटेगें तो कटेगें" वाले नारे का मुकाबला नहीं कर पाया.

अब दिल्ली के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषण में एक शब्द का प्रयोग कर के आआपा वालों के लिये मुश्किल पैदा कर दी है. इन लोगों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि एएपी का हिन्दी रुप "आप" चला कर वे ऐसा कर देगें कि लोग आप शब्द का प्रयोग करना तक भूल जाएंगे. जैसे आजकल किसी को आप पप्पू कह दें तो वह आपको बहुआयामी गालियों से आह्लादित कर देगा. एक जमाने में लोग अपने बच्चों को मुन्ना, पप्पू वगैरह बुलाया करते थे. पर आज शायद ही कोई बाप या माँ अपने बच्चे को पप्पू कह कर बुलाते होंगे. सर्वनाम जब संज्ञा बन जाये तो ऐसा ही होता है. महात्मा और पंडित कहलाने वाले लोगों ने इन आदरणीय शब्दों की छवि खराब कर दी है पर फिर भी महात्मा और पंडित आम प्रयोग में मिल जाते हैं. मगर पप्पू अभी कुछ सालों तक वर्जित शब्दों की श्रेणी में ही बना रहेगा.

पीएम मोदी ने आआपा वालों को दिल्ली के लिए 'आप'दा विशेषण से सुशोभित कर के बहुत ही मारक प्रभाव पैदा कर दिया है. और इस घातक प्रहार की काट आआपा वाले अब तक नहीं निकाल पाये हैं. हालांकि पता नहीं यह शब्द सहज भाव से मोदी जी के भाषण में आ गया या इसे किसी अदृश्य लेखक ने लिखा. साल 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान इसी तरह पीएम  मोदी ने सपा के "कारनामा" का जिक्र कर के मारक प्रभाव पैदा कर दिया था कि सपा वालों का काम नहीं बोलता, इनका "कारनामा" सब कुछ बयान कर देता है. इन्दिरा जी के जमाने में "ये कहते हैं इन्दिरा हटाओ, मैं कहती हूं गरीबी हटाओ' के नारे ने ऐसा ही प्रभाव पैदा किया था. आल इन्दिरा रेडियो भी ऐसा प्रभाव पैदा नहीं कर पाया था न ही "इन्दिरा इज इण्डिया एण्ड इण्डिया इज इन्दिरा" वाला बयान तो कांग्रेस की आलोचना करने के काम आ गया था.

आशा करता हूं कि बाकी राजनीतिक दल भी  इसी तरह के चुटीले तीरों का प्रयोग कर हमारा मनोरंजन भी करेंगे और अपनी लक्ष्यप्राप्ति का प्रयास भी.