FDI के मुद्दे पर अलग अलग पार्टियों ने जो रूख दिखलाया है वह यही बताता है कि ये पार्टियाँ अपने राजनीतिक फायदे के लिए कुछ भी कर सकती है. और अपनी हर बात को सही दिखलाने के लिए उनके पास हमेशा भाजपा का बहाना मौजूद रहता है.उनका मानना है कि देश जाए चूल्हे भाँड़ में, पर भाजपा को सत्ता में नहीं आने देंगे.
इधर भाजपा को देख के लगता है कि उसे दुश्मनों की जरूरत ही नहीं है. अपना सत्यानाश करने के लिए बह खुद काफी है. हाल फिलहाल गडकरी ने जो नुकसान भाजपा का कराया है उसकी भरपाई शायद ही हो पाए. चाल चरित्र चेहरा का दावा करने वाली पार्टी ने गडकरी के मामले में शुतुर्मुर्गी नजरिया अपना लिया है. शायद यह संघ के स्वाभिमान को बचाने के नाम पर हो रहा है. गलती हर किसी से हो सकती है. अगर गडकरी को भाजपा अध्यक्ष बनाते वक्त कुछ जानकारिया जगजाहिर नहीं थी तो जगजाहिर होने के बाद अपना फैसला बदल लेना बुद्धिमानी की बात होती. मगर जानते हुए भी कि गलत हो गया है उस फैसले से चिपके रहना सही नहीं.
ऐसा भी नहीं है कि राम जेठमलानी जो कर रहे है वो सही है, या यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा की बाते जायज हैं. कुछ बाते पार्टी फोरम के भीतर ही होनी चाहिए अगर आपका मकसद पार्टी कि होने वाले नुकसान से बचाना है. मगर यहाँ तो लगता है कि पार्टी के हर फैसले को, नेतृत्व को अपने निजी पूर्वग्रहों के चलते गरियाते रहने की आदत बना ली गई है. पता नहीं किस सोच ने जेठमलानी या शत्रुघ्न सिन्हा जैसे लोगों को भाजपा में शामिल कराया.
सपा और बसपा अपनी अपनी मजबूरियों के चलते यूपीए के साथ चिपकी हुई हैं. बसपा को एससी एसटी के लिए प्रोन्नतियों में आरक्षण बहाल कराना जरूरी लगता है तो सपा को इसका विरोध करना. बावजूद इसके दोनों यूपीए के साथ हैं और अपनी अपनी बात मनवाने के लिए वे किसी भी हद तक जाने का दावा भी कर रहीं हैं. यहाँ भी देशहित की चिन्ता नहीं अपने राजनीतिक हितों की चिन्ता अधिक है.
तृणमूल नेत्री ममता बनर्जी का आचरण तो और गजब का है. कब क्या फैसला कर लेगीं कोई नहीं जानता. चूंकि भाजपा और लेफ्ट ने उनके अविश्वास प्रस्ताव का साथ नहीं दिया सो वे इन पार्टियों के मत विभाजन कराने की माँग का समर्थन नहीं करेगीं.
हालात ऐसे बन गये हैं कि को बड़ छोट कहत अपराधू! ऐसे में आम जनता की जिम्मेदारी बनती है कि वो पार्टियों से उपर उठें और हर जगह उम्मीदवार को प्राथमिकता दें.
इधर भाजपा को देख के लगता है कि उसे दुश्मनों की जरूरत ही नहीं है. अपना सत्यानाश करने के लिए बह खुद काफी है. हाल फिलहाल गडकरी ने जो नुकसान भाजपा का कराया है उसकी भरपाई शायद ही हो पाए. चाल चरित्र चेहरा का दावा करने वाली पार्टी ने गडकरी के मामले में शुतुर्मुर्गी नजरिया अपना लिया है. शायद यह संघ के स्वाभिमान को बचाने के नाम पर हो रहा है. गलती हर किसी से हो सकती है. अगर गडकरी को भाजपा अध्यक्ष बनाते वक्त कुछ जानकारिया जगजाहिर नहीं थी तो जगजाहिर होने के बाद अपना फैसला बदल लेना बुद्धिमानी की बात होती. मगर जानते हुए भी कि गलत हो गया है उस फैसले से चिपके रहना सही नहीं.
ऐसा भी नहीं है कि राम जेठमलानी जो कर रहे है वो सही है, या यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा की बाते जायज हैं. कुछ बाते पार्टी फोरम के भीतर ही होनी चाहिए अगर आपका मकसद पार्टी कि होने वाले नुकसान से बचाना है. मगर यहाँ तो लगता है कि पार्टी के हर फैसले को, नेतृत्व को अपने निजी पूर्वग्रहों के चलते गरियाते रहने की आदत बना ली गई है. पता नहीं किस सोच ने जेठमलानी या शत्रुघ्न सिन्हा जैसे लोगों को भाजपा में शामिल कराया.
सपा और बसपा अपनी अपनी मजबूरियों के चलते यूपीए के साथ चिपकी हुई हैं. बसपा को एससी एसटी के लिए प्रोन्नतियों में आरक्षण बहाल कराना जरूरी लगता है तो सपा को इसका विरोध करना. बावजूद इसके दोनों यूपीए के साथ हैं और अपनी अपनी बात मनवाने के लिए वे किसी भी हद तक जाने का दावा भी कर रहीं हैं. यहाँ भी देशहित की चिन्ता नहीं अपने राजनीतिक हितों की चिन्ता अधिक है.
तृणमूल नेत्री ममता बनर्जी का आचरण तो और गजब का है. कब क्या फैसला कर लेगीं कोई नहीं जानता. चूंकि भाजपा और लेफ्ट ने उनके अविश्वास प्रस्ताव का साथ नहीं दिया सो वे इन पार्टियों के मत विभाजन कराने की माँग का समर्थन नहीं करेगीं.
हालात ऐसे बन गये हैं कि को बड़ छोट कहत अपराधू! ऐसे में आम जनता की जिम्मेदारी बनती है कि वो पार्टियों से उपर उठें और हर जगह उम्मीदवार को प्राथमिकता दें.
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